ट्रम्प के टैरिफ से चीन की GDP 1.5% गिरी थी:बीजिंग से पहली बार नहीं भिड़ रहे ट्रम्प; पिछले कार्यकाल में ट्रेड वॉर शुरू किया

1 दिसंबर 2018 वैंकूवर एयरपोर्ट, कनाडा कनाडा ने अमेरिका के कहने पर मेक्सिको जा रही एक चीनी महिला को गिरफ्तार कर लिया। उस पर आरोप लगा कि वह एक अमेरिकी बैंक को गलत जानकारी देकर ईरान के साथ बिजनेस कर रही है। यह महिला कोई आम चीनी नागरिक नहीं बल्कि चीन की सबसे बड़ी मोबाइल कंपनी हुआवे के मालिक रेन झेंगफेई की बेटी मेंग वानझोउ थी। मेंग की गिरफ्तारी से चीन बेहद नाराज हो गया और उसने अंजाम भुगतने की धमकी दी। मेंग को अमेरिका भेजने की कोशिश हो ही रही थी कि 10 दिसंबर को चीन ने कनाडा के दो नागरिक माइकल कोवरिग और माइकल स्पारोव को जासूसी के आरोप में गिरफ्तार कर लिया। मेंग की गिरफ्तारी के पीछे की असल वजह अमेरिका और चीन के बीच चल रहा ट्रेड वॉर था। इस जंग में ट्रूडो फंस गए थे। स्टोरी में जानेंगे कि कैसे चीन और अमेरिका के बीच पहला टैरिफ वॉर शुरू हुआ और इसका नतीजा क्या रहा? अमेरिकी कंपनियों की नकल करती थीं चीनी कंपनियां डोनाल्ड ट्रम्प 2017 में पहली बार अमेरिका के राष्ट्रपति बने। ट्रम्प ने चुनाव में वादा किया था कि वो चीन के साथ व्यापार घाटा कम करेंगे। ट्रम्प जब राष्ट्रपति बने तब अमेरिका का चीन के साथ व्यापार घाटा 355 अरब डॉलर था। उसी साल अगस्त में ट्रम्प ने चीन पर बौद्धिक संपदा की चोरी यानी अमेरिकी कंपनियों के उत्पादों की नकल करने का आरोप लगाया और इसकी जांच शुरू करवाई। ट्रम्प ने ट्रेड वॉर की शुरुआत जनवरी 2018 में सौलर पैनल पर 30% और वॉशिंग मशीन पर 20 से 50% टैरिफ लगाकर की। इसके बाद ट्रम्प ने स्टील पर 25% और एल्यूमीनियम पर 10% टैरिफ लगाया। ये सभी देशों पर लागू किए गए, लेकिन इनका सबसे ज्यादा असर चीन पर पड़ा। चीन इनका बड़ा आपूर्तिकर्ता था। 2018 में अमेरिका का चीन के साथ व्यापार घाटा बढ़कर 419 अरब डॉलर हो गया। 22 मार्च 2018 को अमेरिकी कंपनियों की नकल से जुड़ी जांच की रिपोर्ट भी आ गई। इसमें पाया गया कि चीन की नीतियां अमेरिकी कंपनियों को नुकसान पहुंचा रही है। दुनिया की ग्रोथ 3.6% से घटकर 2.9% पर आई ट्रम्प के ट्रेड वॉर का चीन के टेक सेक्टर पर सीधा असर पड़ा। अमेरिका ने हुआवे और ZTE जैसी टेक कंपनियों को ब्लैकलिस्ट कर दिया। इससे इन कंपनियों को अमेरिकी सॉफ्टवेयर और हार्डवेयर मिलने में दिक्कत आने लगी। इसकी वजह से चिप यानी सेमीकंडक्टर की सप्लाई का संकट गहरा गया। चीन ने भी अमेरिकी सोयाबीन की खरीद घटा दी थी। इससे अमेरिकी किसानों को भारी नुकसान हुआ। इसका सबसे ज्यादा असर सेंट्रल अमेरिका के राज्यों पर पड़ा। दूसरी तरफ ट्रेड वॉर से रॉ मटेरियल्स मंहगे हो गए। इससे कंपनियों की उत्पादन लागत बढ़ने लगी। इसकी वजह से मोबाइल, इलेक्ट्रॉनिक्स और रोजमर्रा की चीजों की कीमतें बढ़ने लगीं। अमेरिका और चीन के बीच ट्रेड की लड़ाई सिर्फ दो देशों तक सीमित नहीं रही। इसने पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था पर असर डाला। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) ने बताया कि इस ट्रेड वॉर से 2019 की ग्लोबल ग्रोथ 3.6% से गिरकर 2.9% पर आ गई। अमेरिका-चीन में फेज वन समझौते ने रोका टैरिफ वॉर डोनाल्ड ट्रम्प ने दिसंबर 2019 से 160 अरब डॉलर के चीनी सामान पर 15% टैरिफ लगाने का प्लान बनाया था। वे इससे पहले सितंबर में 112 अरब डॉलर के सामान पर टैरिफ लगा चुके थे। इस बीच दिसंबर में दोनों देशों ने तनाव कम करने की कोशिश की। इस कोशिश के मद्देनजर ट्रम्प ने 160 अरब डॉलर के सामान पर टैरिफ लगाने का प्लान रद्द कर दिया। इसके अलावा 120 बिलियन सामान पर टैरिफ 15% से घटाकर 7.5% कर दिया। 15 जनवरी 2020 को अमेरिका और चीन ने फेज वन व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर किए। चीन ने वादा किया कि वो अमेरिका से ज्यादा कृषि उत्पाद खरीदेगा। साथ ही अमेरिकी कंपनियों की बौद्धिक संपदा की चोरी और करेंसी में हेरफेर को रोकेगा। अमेरिका ने कई टैरिफ कम किए, लेकिन 350 अरब डॉलर के सामान पर 7.5 से 25% टैरिफ बरकरार रखा। 4 साल बाद फिर ट्रेड वॉर की शुरुआत अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने अपने दूसरे कार्यकाल के पहले तीन महीनों में चीन के साथ ट्रेड वॉर शुरू कर दिया है। ट्रम्प अब तक चीन पर 145% टैरिफ बढ़ा चुके हैं। इसके जबाव में चीन भी अमेरिकी सामान पर 125% टैरिफ बढ़ा चुका है। दूसरी तरफ ट्रम्प ने दुनिया के बाकी देशों पर लगाए रेसिप्रोकल टैरिफ पर रोक लगा दी है। ट्रम्प ने 2 अप्रैल को भारत,चीन समेत 60 देशों पर रेसिप्रोकल टैरिफ लगाया था, जिसे 9 अप्रैल को 90 दिन के लिए टाल दिया। लेकिन अमेरिकी ने अपने इस फैसले में चीन को कोई रियायत नहीं दी है। इससे एक बार फिर अमेरिका और चीन के बीच फिर से व्यापारिक तनाव गहराने लगे हैं। ट्रेड वॉर में भारत पिछली बार मौका छूटा, इस बार बेहतर उम्मीद जब 2018 में ट्रम्प प्रशासन ने चीन के खिलाफ टैरिफ वॉर छेड़ा था, तब भारत को उम्मीद थी कि चीन से निकलकर कंपनियां उसकी ओर रुख करेंगी। लेकिन ऐसा बड़े पैमाने पर नहीं हुआ। अब 2024-25 में हालात दोबारा वैसे ही बनते दिख रहे हैं। इकोनॉमिक्स टाइम्स की 2019 की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2018 में जापान, अमेरिका और यूरोपीय कंपनियां चीन छोड़ना चाहती थी, लेकिन भारत की नीतिगत सुस्ती, लेबर लॉ की जटिलता और कमजोर लॉजिस्टिक्स की वजह से इन कंपनियों ने वियतनाम और बांग्लादेश का रुख किया। हालांकि इस बार यह स्थिति बदल सकती है। ब्लूमबर्ग की 2024 की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत ने PLI स्कीम, बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर, सिंगल विंडो क्लीयरेंस जैसे सुधार लागू किए हैं। इससे अमेरिकी या दूसरे देशों की कंपनियों को पहले की तुलना में भारत आने के लिए थोड़ी आसानी हो सकती है। 2018 में चीन ने अमेरिका से सोयाबीन, गेहूं और कॉटन के आयात पर टैरिफ लगाए। लेकिन भारत गुणवत्ता और वॉल्यूम के मामले में मुकाबले में नहीं उतर पाया। इकोनॉमिक सर्वे के मुताबिक भारत ने इस बार ग्लोबल GAP जैसी गुणवत्ता मानकों को अपनाया हैं। निर्यात में वृद्धि के लिए फूड प्रोसेसिंग पर जोर दिया जा रहा है।

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