एक्टर मनोज कुमार का शुक्रवार सुबह मुंबई के कोकिलाबेन अस्पताल में निधन हो गया। वे 87 साल के थे। वे विशेष रूप से अपनी देशभक्ति फिल्मों के लिए जाने जाते थे। उन्हें भारत कुमार के नाम से भी जाना जाता था। उपकार, पूरब-पश्चिम, क्रांति, रोटी-कपड़ा और मकान उनकी बेहद कामयाब फिल्में रहीं। मनोज कुमार को 7 फिल्म फेयर पुरस्कार मिले थे। पहला फिल्म फेयर 1968 में फिल्म उपकार के लिए मिला था। उपकार ने बेस्ट फिल्म, बेस्ट डायरेक्टर, बेस्ट स्टोरी और बेस्ट डायलॉग के लिए चार फिल्म फेयर जीते। 1992 में उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया। 2016 में उन्हें दादा साहेब फाल्के अवॉर्ड से नवाजा गया। मनोज ने लाल बहादुर शास्त्री के कहने पर फिल्म उपकार (1967) बनाई थी, लेकिन शास्त्री जी फिल्म नहीं देख सके। 1966 में शास्त्री जी का निधन हो गया था। मां को इलाज नहीं मिला तो 10 साल की उम्र में डॉक्टरों की पिटाई की मनोज कुमार का असली नाम हरिकृष्ण गोस्वामी था। 24 जुलाई 1937 को एबटाबाद, ब्रिटिश इंडिया (अब खैबर पख्तूनख्वा, पाकिस्तान) में उनका जन्म हुआ। एबटाबाद वही जगह है, जहां 2 मई 2011 को अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन को मारा था। मनोज कुमार जब 10 साल के थे तब 1947 में उनके छोटे भाई कुक्कू का जन्म हुआ। तबीयत बिगड़ने पर 2 माह के भाई और मां को अस्पताल में भर्ती करवाया गया था कि तभी दंगे भड़क गए। हर तरफ अफरा-तफरी मची और अस्पताल का स्टाफ जान बचाकर भागने लगा। जैसे ही सायरन बजता था तो जो डॉक्टर और नर्स बचे हुए थे वो अंडरग्राउंड हो जाया करते थे। ऐसे में सही इलाज ना मिल पाने के चलते मनोज कुमार के 2 माह के भाई ने अस्पताल में ही दम तोड़ दिया। मां की हालत भी उस समय गंभीर थी। वो तकलीफ में चिल्लाती रहती थीं, लेकिन कोई डॉक्टर या नर्स उनका इलाज नहीं करता था। एक दिन ये सब देखकर मनोज इस कदर नाराज हुए कि उन्होंने लाठी उठाई और अंडरग्राउंड जाकर डॉक्टर्स और नर्स को पीटना शुरू कर दिया। मनोज तब सिर्फ 10 साल के थे, लेकिन उनसे मां की तकलीफ देखी नहीं जा रही थी। पिता ने उन पर काबू पाया और परिवार ने जान बचाने के लिए पाकिस्तान छोड़ने का फैसला कर लिया। उनका परिवार जंडियाला शेर खान से पलायन कर दिल्ली पहुंचा। यहां उन्होंने 2 महीने रिफ्यूजी कैंप में बिताए। समय बीता और दंगे कम होने लगे। पूरा परिवार जैसे-तैसे दिल्ली में बस गया, जहां मनोज की पढ़ाई हो सकी। उन्होंने स्कूल के बाद हिंदू कॉलेज से ग्रेजुएशन पूरा किया और नौकरी की तलाश शुरू कर दी। लाइट टेस्टिंग के लिए कैमरे के सामने खड़े किए गए, यहीं से रोल मिला
एक दिन मनोज कुमार काम की तलाश में फिल्म स्टूडियो में टहल रहे थे कि उन्हें एक व्यक्ति दिखा। मनोज ने बताया कि वो काम की तलाश कर रहे हैं, तो वो आदमी उन्हें साथ ले गया। उन्हें लाइट और फिल्म शूटिंग में लगने वाले दूसरे सामानों को ढोने का काम मिला। धीरे-धीरे मनोज के काम से खुश होकर उन्हें फिल्मों में सहायक के रूप में काम दिया जाने लगा। फिल्मों के सेट पर बड़े-बड़े कलाकार अपना शॉट शुरू होने से बस चंद मिनट पहले पहुंचते थे। ऐसे में सेट में हीरो पर पड़ने वाली लाइट चैक करने के लिए मनोज कुमार को हीरो की जगह खड़ा कर दिया जाता था। एक दिन जब लाइट टेस्टिंग के लिए मनोज कुमार हीरो की जगह खड़े हुए थे। लाइट पड़ने पर उनका चेहरा कैमरे में इतना आकर्षक लग रहा था कि एक डायरेक्टर ने उन्हें 1957 में आई फिल्म फैशन में एक छोटा सा रोल दे दिया। रोल छोटा जरूर था, लेकिन मनोज कुछ मिनट की एक्टिंग में अपनी छाप छोड़ने में कामयाब रहे। उसी रोल की बदौलत मनोज कुमार को फिल्म कांच की गुड़िया (1960) में लीड रोल दिया गया। पहली कामयाब फिल्म देने के बाद मनोज ने बैक-टु-बैक रेशमी रुमाल, चांद, बनारसी ठग, गृहस्ती, अपने हुए पराए, वो कौन थी जैसी कई फिल्में दीं। दिलीप कुमार के चलते रखा मनोज नाम
बचपन से ही मनोज कुमार, दिलीप कुमार के बड़े प्रशंसक थे। दिलीप साहब की फिल्म शबनम (1949) मनोज कुमार को इतनी पसंद आई थी कि उन्होंने उसे कई बार देखा। फिल्म में दिलीप कुमार का नाम मनोज था। जब मनोज कुमार फिल्मों में आए तो उन्होंने दिलीप कुमार के नाम पर ही अपना नाम भी मनोज कुमार कर लिया।
