अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने 60 देशों पर टैरिफ लगा दिया है। इस वजह से दुनियाभर के शेयर बाजार में उथल-पुथल मच गई है। भारत के सेंसेक्स में 19 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा का नुकसान हो चुका है। एक्सपर्ट्स का मानना है कि आने वाले दिनों में इसमें और इजाफा हो सकता है। यह पहली बार नहीं है जब अमेरिका के किसी फैसले से दुनियाभर के बाजार में गिरावट आई है। स्टोरी में ऐसी 4 घटनाओं के बारे में जानिए… 1929- कर्ज लेकर शेयर खरीदे, बुलबुला फूटा तो आया ‘द ग्रेट डिप्रेशन’ प्रथम विश्वयुद्ध के खत्म होने के बाद अमेरिका सुपर पावर के तौर पर उभरा था। इकोनॉमी तेजी से बढ़ रही थी। शेयर बाजार को लेकर तब लोगों की यह समझ बन गई थी कि यह हमेशा ऊपर ही जाएगा। इस वजह से लोग कर्ज लेकर भी शेयर खरीद रहे थे। निवेशक अपनी पूंजी का 10 से 20% पैसा लगाते थे, बाकी ब्रोकर से कर्ज ले लेते। अमेरिकी सरकार ने इस जोखिम भरे खेल पर कोई रोक नहीं लगाया। तब शेयर मार्केट को कंट्रोल करने के लिए कोई एजेंसी भी नहीं थी। 1928 के अंत तक बाजार में शेयर की कीमतें बहुत ज्यादा बढ़ गईं। डाउ जोन्स 1921 में 63 अंकों पर था। 8 साल बाद यह 6 गुना बढ़कर 381 अंकों पर पहुंच चुका था। दूसरी तरफ अमेरिका में मजदूरों और किसानों की इनकम बढ़ नहीं रही थी। कंपनियों का मुनाफा आसमान छू रहा था। इस वजह से मांग और आपूर्ति में भारी अंतर पैदा हो गया था। कंपनियां खूब सारा प्रोडक्ट्स बना रही थी लेकिन उस अनुपात में बिक नहीं रहे थे। इसका असर मार्केट पर पड़ा। अचानक शेयर गिरने लगे, इस नुकसान की भरपाई के लिए लोगों ने शेयर बेचना शुरू कर दिया। इससे बाजार और तेजी से गिरा, लोगों ने फिर शेयर बेचा। यह एक चेन रिएक्शन बन गया। अखबारों ने इस घटना को बढ़ा-चढ़ाकर छापा, जिसने निवेशकों का डर और बढ़ गया। छोटे निवेशक, जो मार्जिन पर भारी कर्ज में थे, सबसे ज्यादा घबराए। बैंकों से पैसा निकालने की होड़ मची, 3 साल में 9000 बैंक दिवालिया 1971- डॉलर दो सोना लो सिस्टम फेल, दुनिया को ‘निक्सन शॉक’ मिला दूसरे विश्वयुद्ध तक ज्यादातर देशों के पास जितना सोने का भंडार होता था, वो उतनी ही वैल्यू की करेंसी जारी करते थे। 1944 में ब्रेटन वुड्स सिस्टम के शुरू होने से यह सिस्टम बदल गया। तब दुनिया के 44 देशों के डेलिगेट्स मिले और अमेरिकी डॉलर के मुकाबले सभी करेंसी का एक्सचेंज रेट तय किया। अमेरिकी डॉलर के मुकाबले इसलिए क्योंकि तब अमेरिका के पास सबसे ज्यादा सोने का भंडार था और वो दुनिया की सबसे बड़ी और स्थिर अर्थव्यवस्था था। तब अमेरिका ने यह वादा किया था कि कोई भी देश अपने डॉलर को सोना में बदल सकता है। इसे ‘गोल्ड विंडो’ कहा जाता था। जब ये वादा किया गया था तब अमेरिका के पास 20 हजार टन सोना था जो कि दुनिया का 70% था। हालांकि 30 साल बाद यह सिस्टम फेल होना शुरू हो गया। दरअसल, अमेरिका, वियतनाम जंग में उलझ चुका था। उसने इस जंग में कई बिलियन डॉलर झोंक डाले थे। डॉलर की कमी पूरी करने के लिए वह लगातार डॉलर छापता जा रहा था। सोना खरीदने के लिए अपने जहाज अमेरिका भेजने लगी दुनिया 1981- शेयर मार्केट का सबसे बुरा दिन, नाम है- ब्लैक मंडे साल 1981 में राष्ट्रपति बनने पर रोनाल्ड रीगन ने टैक्स कम किए, सरकारी खर्चे में कटौती की बाजार को और खोला। इसे ‘रीगनॉमिक्स’ नाम दिया गया। इससे अमेरिकी शेयर बाजार में जबरदस्त तेजी आई। 1982 में डाउ जोंस 777 अंक पर था, यह 1987 में 2,722 अंक पर पहुंच गया। वॉल स्ट्रीट पर हर कोई पैसा बना रहा था। ब्याज दरें बढ़ रही थीं, मुद्रास्फीति का डर था, और बाजार में सट्टेबाजी चरम पर थी। फिर भी, किसी को अंदाजा नहीं था कि एक तूफान आने वाला है। इसी बीच 16 अक्टूबर (शुक्रवार) को यह खबर आई कि अमेरिकी सरकार टैक्स नियमों में बदलाव कर सकती है। इससे कंपनियों का टेकओवर मुश्किल हो जाएगा। अखबारों ने इस खबर को बढ़ा-चढ़ाकर छापा और दो दिन बाद जो मंडे आया, उसका जिक्र आज भी ‘ब्लैक मंडे’ से होता है। 19 अक्टूबर को न्यूयॉर्क स्टॉक एक्सचेंज (NYSE) का घंटा बजने के साथ की गिरावट का दौर शुरू हुआ जो बंद होने तक जारी रहा। कम्प्यूटर की वजह से बिकवाली ज्यादा हुई, एक दिन में 45.8% गिरा बाजार 2008- लेहमैन ब्रदर डूबा तो टूटा अमेरिकन ड्रीम, द ग्रेट रिसेशन आया 2000 के दशक की शुरुआत में अमेरिका में सब कुछ चमक रहा था। इकोनॉमी बढ़ रही थी, और हर कोई अपने ‘अमेरिकन ड्रीम’ को सच करने में जुटा था। ‘अमेरिकन ड्रीम’ शब्द ग्रेट डिप्रेशन 1929 के बाद आया था। तब लोग गरीबी में जी रहे थे और उन्हें इस शब्द ने एक उम्मीद दी थी। अमेरिकन ड्रीम का मतलब मेहनत से सब हासिल करना। एक घर, एक गाड़ी और एक अच्छी जिंदगी। बैंकों और सरकार ने इसे आसान बना दिया। ब्याज दरें कम थीं, और घर खरीदना पहले से कहीं सस्ता लग रहा था। बैंक इसके लिए बेहिसाब कर्ज दे रही थी। लोग लोन से घर खरीदने लगे और बेचकर तगड़ा मुनाफा बनाने लगे। अमेरिका के कई शहरों में 2006 तक घरों की कीमतें आसमान छूने लगीं। महज पांच साल में यह दोगुनी-तिगुनी हो गईं। लेखक माइकल लेविस अपनी किताब ‘द बिग शॉर्ट’ में लिखते हैं- लास वेगास में एक वेटर तीन घर खरीद रहा था, मियामी में एक ड्राइवर चार। बैंकर बोनस कमा रहे थे, और सरकार चुप थी। 2006 के अंत तक हवा बदलने लगी। बैंकों ने ब्याज दरें बढ़ीं। इस वजह से घरों की कीमतें जो 10% सालाना बढ़ रही थीं, अब गिरने लगीं। कीमतें गिरने का नुकसान ये हुआ कि कर्ज लेने वाले अपना कर्ज नहीं चुका पा रहे थे। 2007 के अंत तक कर्ज न चुका पाने की वजह से लाखों घरों को जब्त कर लिया गया। इस वजह से घरों की कीमतें 30% तक गिर गईं। सितंबर 2008 में अमेरिका का चौथा सबसे बड़ा बैंक लेहमैन ब्रदर्स दिवालिया हो गया। इस खबर से बाजार में सुनामी आ गई। एक दिन डाउ जोंस 4.4% गिर गया। एक हफ्ते में यह 777 अंक नीचे गिर चुका था जो 9/11 के हमले के बाद सबसे बड़ी गिरावट थी। लेहमैन के दिवालिया होने की वजह से बैंकों ने एक दूसरे को उधार देना बंद कर दिया। इससे क्रेडिट मार्केट ठप पड़ गया। 2007 में अमेरिकी शेयर बाजार 14 हजार के ऊपर था, वह मार्च 2009 तक करीब 6500 अंक तक गिर गया था। 8 ट्रिलियन डॉलर की संपत्ति बर्बाद हो चुकी थी। मंदी में भारत का शेयर बाजार 52% गिरा, प्राइवेट नौकरियों का क्रेज कम हुआ सोर्स 1. https://www.thegoldobserver.com/p/how-france-secretly-repatriated-all 2. https://www.theguardian.com/business/2021/aug/15/rise-of-cryptocurrencies-can-be-traced-to-nixon-abandoning-gold-in-1971 3. https://qz.com/1106440/black-monday-1987-the-stock-market-crash-that-was-so-bad-hospital-admissions-spiked ……………………………………………. ट्रम्प के टैरिफ से जुड़ी ये खबर भी पढ़ें… सेंसेक्स 2226 अंक गिरकर 73,137 पर बंद:निफ्टी 3.24% गिरा, मेटल सेक्टर सबसे ज्यादा 6.75% टूटा; एशियाई बाजार 10% तक गिरे शेयर बाजार में आज यानी सोमवार 7 अप्रैल को साल की दूसरी बड़ी गिरावट आई। सेंसेक्स 2226 अंक (2.95%) गिरकर 73,137 के स्तर पर बंद हुआ। निफ्टी में 742 अंक (3.24%) की गिरावट रही, ये 22,161 के स्तर पर बंद हुआ। इससे पहले 4 जून 2024 को बाजार 5.74% गिरा था। पूरी खबर यहां पढ़ें…
